Politics
स्वादिष्ट व्यंजनों का स्वाद लेने का अधिकार
Avinash Chandra
May 02, 2017, 04:45 PM | Updated 04:45 PM IST
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प्राचीन काल में सुकीर्ति नामक एक प्रतापी राजा हुआ करता था। उसके राज्य का नाम था अनंतप्रस्थ जिसकी राजधानी थी सूर्यनगर। अनंतप्रस्थ के निवासी अपने राजा का बहुत ही आदर करते थे। आदर करते भी क्यों नहीं, राज्य के विकास और सबकी भलाई ही सुकीर्ति के जीवन का एकमात्र उद्देश्य जो था। सुकीर्ति अपने राज्य के निवासियों की भलाई के लिए दिन-रात, सुबह-शाम बिना रुके, बिना थके काम करता रहता था और अपने साथ अपने दरबारियों और मंत्रियों पर भी कड़ी निगरानी रखता था।
देश में रोजगार को बढ़ावा देने के लिए राजा सुकीर्ति ने राजधानी सूर्यनगर के बीचोबीच एक विशाल हाट का निर्माण कराया जहाँ दिनभर पूरे राज्य के व्यापारी, व्यवसायी, पशुपालक, किसान, कलाकार आदि एकत्रित होकर व्यापार करते और शाम होते-होते अपने अपने नगर को वापस लौट जाते। जिनके नगर दूर थे वे सूर्यनगर में ही कई दिनों और कई-कई बार कई हफ्तों तक प्रवास करते और कुछ धन एकत्रित हो जाने के बाद ही अपने नगर को लौटते।
सूर्यनगर में एक गरीब परिवार रहता था जिसका मुखिया था गरीबदास। गरीबदास एक नाविक था जिसने नाव से अनेक नगरों और राज्यों की यात्रा की थी। उसे भिन्न भिन्न प्रकार के खाने का भी बड़ा शौक था और यात्रा के दौरान जिन नगरों और राज्यों में वह जाता वहाँ के विशेष व्यंजन को अवश्य चखता और पसंद आने पर उन्हें बनाना भी सीख लेता।
उम्र हो जाने और शरीर के साथ न देने के कारण अब वह यात्रा पर नहीं जा सकता था, लेकिन खाने और खाना बनाने का उसका शौक अब भी पहले जैसा ही था। हालाँकि पैसे की तंगी के कारण वह अपने शौक को पूरा करने में समर्थ नहीं था। एक दिन वह यूँ ही घूमते-घूमते हाट की ओर चला गया। वहाँ उसने देखा कि दूसरे नगरों से आने वाले व्यापारियों, व्यवसायियों, कलाकारों आदि को खाने की बड़ी परेशानी होती थी। उन्हें अपने-अपने नगर के विशेष व्यंजन वहाँ नहीं मिल पाते थे।
गरीबदास ने काफी विचार करने के पश्चात उनकी सेवा करने की योजना बनाई। उसने अपने बेकार पड़ी नाव को बेचकर कुछ पैसे इकट्ठे किए और बाजार से सामग्री आदि खरीदकर कई प्रकार के व्यंजन बनाए और हाट में जाकर उनका वितरण करने लगा।
लोगों को उसकी यह सेवा अत्यंत पसंद आई। धीरे-धीरे गरीबदास लोगों के बीच काफी लोकप्रिय हो गया। हालाँकि नाव बेचने के बाद मिले पैसे अब समाप्त हो चले थे और एक दिन ऐसा आया जब गरीबदास के पास मात्र एक दिन के व्यंजन बनाने की सामग्री ही बाकी रह गयी। उस दिन उसने बड़े प्यार से व्यंजन पकाया और हाट जाकर व्यापारियों को वितरित करने लगा। उसे पता था कि आज उसकी सेवा का अंतिम दिन है, इसलिए वह थोड़ा रुंआसा सा भी था। व्यापारियों ने उससे इसका कारण पूछा तो गरीबदास ने सारी व्यथा कह सुनायी। तब व्यापारियों ने उसे एक उपाय सुझाया। उन्होंने गरीबदास को अपने व्यंजनों को निःशुल्क वितरित करने की बजाए कुछ शुल्क वसूलने का सुझाव दिया ताकि वह अपने इस कार्य को जारी रख सके।
गरीबदास को योजना पसंद आयी और उसने अपने व्यंजनों के लिए थोड़ा शुल्क लेना शुरू कर दिया। अब वह अधिक मात्रा में व्यंजन तैयार करने लगा और उसे बेचकर कुछ मुनाफ़ा अर्जित करने लगा। उसने एक छोटी सी दुकान बना ली और कुछ युवकों को एवं युवतियों को भी अपनी सहायता के लिए रख लिया। बदले में वह उन्हें भी कुछ धन दे दिया करता था। उसे ऐसा करता देख कुछ और लोगों ने भी छोटी मोटी दुकानें लगा ली और व्यंजन पकाने लगे।
राजा सुकीर्ति को जब यह बात पता लगी तो उसने हाट के समीप ही व्यंजन उपलब्ध कराने की सरकारी व्यवस्था शुरू कर दी जो एकदम निःशुल्क थी। इससे राजा की बड़ी तारीफ हुई और उसकी ख्याति आस पड़ोस के राज्यों तक पहुँचने लगी।
राजा ने अपनी ख्याति को बरकरार रखने के लिए कई मंत्रियों को इस व्यवस्था की देखरेख की जिम्मेदारी सौंप दी। मंत्रियों को इस जिम्मेदारी के बदले में काफ़ी धन-धान्य प्रदान किया जाता था। राजा ने इस मद में होने वाले खर्च को पूरा करने के लिए राज्य के निवासियों पर थोड़ा कर भी लगा दिया। लेकिन सरकारी व्यंजन वाले प्रतिष्ठान से धीरे-धीरे लोगों की भीड़ कम होने लगी। इसका कारण यह था कि सरकारी प्रतिष्ठान में व्यंजन तैयार करने वाले इसे महज राजकीय आदेश और धन-प्राप्ति का अवसर समझके
करते। इसके अलावा गरीबदास की भाँति उनको व्यंजन पकाने का श्रेष्ठ तरीका भी पता नहीं था लेकिन राजा की तरफ़ से मिलने वाले धन व अन्य सुविधाओं के कारण वह इस कार्य को छोड़ना नहीं चाहते थे। उधर गरीबदास के पास अब भी ग्राहकों की भीड़ लगती थी जो उसके व्यंजनों का लुत्फ़ उठाने के लिए पैसे चुकाने को भी तैयार रहते थे।
राजा के मंत्रियों को जब इसकी खबर लगी तो उन्होंने सरकारी प्रतिष्ठान तक लोगों के आने-जाने के लिए निःशुल्क गाड़ियाँ उपलब्ध करानी शुरू कर दी। इसके लिए राज्य के नागरिकों से थोड़ा कर और लिया जाने लगा।
लेकिन यह क्या, सरकारी प्रतिष्ठान पर तो अब भी लोग नहीं आ रहे थे, यहाँ तक कि वहाँ काम करने वाले कर्मचारी भी अपने खाने के लिए गरीबदास व उसके पड़ोसी दुकानों से व्यंजन मँगाते थे। मंत्रियों व अधिकारियों को समझ में नहीं आ रहा था कि राज्य के श्रेष्ठ खानसामों द्वारा श्रेष्ठ सामग्रियों और मसालों के प्रयोग के बाद भी उनके व्यंजनों का स्वाद गरीबदास व छोटी दुकानों में मिलने वाले व्यंजन जैसा नहीं था। चूंकि गरीबदास के व्यंजनों की कीमत इतनी कम थी सरकार द्वारा व्यंजन बनाने के खर्चा भी उससे अधिक होता था। उन्हें समझ में आने लगा कि ऐसे तो राजा की प्रतिष्ठा में कमी आने लगेगी और उन्हें उस काम से मुक्त भी किया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने फिर से युक्ति लगाई और व्यंजनों के साथ फलों के शरबत भी वितरित करने शुरू कर दिए। यहाँ तक कि अपने खानसामों को बाहर के राज्यों के खानसामों से प्रशिक्षण लेने भी भेजना शुरू कर दिया। इसके लिए अनंतप्रस्थ के नागरिकों से थोड़े कर और वसूले जाने लगे।
चूंकि जनता अपने राजा का सम्मान करती थी और उन्हें प्रेम करती थी इसलिए मंत्रियों द्वारा अधिक कर वसूल ने से होने वाले कष्ट को भी सह रही थी। शरबत वास्तव में अच्छा था इसलिए लोग निःशुल्क गाड़ियों पर बैठकर सरकारी प्रतिष्ठान पहुंचते, शरबत पीते और निकल लेते। लेकिन व्यंजन फिर भी पड़े रहते।
राजा के मंत्री व अधिकारी अब इस मौके की तलाश में थे कि गरीबदास की व अन्य छोटे दुकानों को किसी प्रकार बंद करा दिया जाए ताकि लोग मजबूरी में सरकारी प्रतिष्ठान से व्यंजन खा सके। साथ ही मंत्रियों ने आदेश पारित कर सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए सरकारी प्रतिष्ठान से व्यंजन खाना अनिवार्य कर दिया। लेकिन कर्मचारी कभी सेहत खराब होने तो कभी व्रत होने जैसे किसी न किसी बहाने से व्यंजनों को खाने से बचते। इसी बीच एक ऐसी घटना हुई जिसने मंत्रियों को गरीबदास के खिलाफ कार्रवाई करने का एक मौका दे दिया।
दरअसल, गरीबदास की दुकान के कर्मचारियों की गलती के कारण व्यंजन में किसी मिश्रण की अधिक मात्रा पड़ जाने के कारण कुछ व्यापारियों की तबीयत खराब हो गई। यह सूचना मिलते ही मंत्रियों ने गरीबदास की दुकान को कुछ दिन के लिए बंद करा दिया। साथ ही राज्य में यह संदेश प्रेषित करा दिया कि चूंकि व्यापारियों की सेहत सरकार की पहली प्राथमिकता है इसलिए व्यंजनों की दुकान चलाने के लिए कुछ नियम कानूनों का पालन करना आवश्यक होगा।
ये नियम थे: व्यंजन की दुकान चलाने के लिए कम से कम 100 फर्लांग जगह की अनिवार्यता, जिसमें कम से कम 50 फर्लांग की खुली जगह हो। दुकान के कर्मचारी सरकार द्वारा विशेषरूप से प्रशिक्षित खानसामें ही हों। खानसामों को मेहनताना सरकारी प्रतिष्ठानों के खानसामों के बराबर मिले, दुकानों को व्यंजनों के मिश्रण व प्रयोग की वास्तविक (रेसीपी) मात्रा की सूचना सरकार को देना और उससे स्वीकृत होने पर ही प्रयोग करना, व्यंजनों के एक चौथाई हिस्से को सरकार द्वारा चिन्हित लोगों के लिए निःशुल्क उपलब्ध कराना (जिसका भुगतान सरकार अपने प्रतिष्ठान में तैयार होने वाले व्यंजन की कीमत के बराबर करेगी), दुकान में प्रयोग होने वाली सामग्री सहित सभी वस्तुओं का सरकारी विभागों से जारी किया होना व सभी को निःशुल्क शरबत पिलाना।
साथ ही यह आदेश भी पारित कर दिया गया कि एक माह के भीतर सभी नियम पूरे करने होंगे और एक महीने के बाद उन्हें प्रतिदिन 1 स्वर्ण मुद्रा जुर्माना भरना होगा। उसके बाद जुर्माने की राशि बढ़ाकर 100 स्वर्ण मुद्राएँ कर दी जायेंगी और दुकान को बंदकर दिया जाएगा। उसके पश्चात दुकानदार को अपने सभी ग्राहकों को व्यंजन खरीदने के लिए सरकारी प्रतिष्ठान पर स्वयं लेकर आना होगा।
इन नियमों से दुकानदारों में अफ़रातफ़री मच गयी। सरकारी नियमों के आधार पर दुकान चलाना अत्यंत मुश्किल हो गया। व्यंजनों को तैयार करने की लागत कई गुना ज्यादा बढ़ गयी। सरकारी प्रशिक्षित खानसामों की संख्या बेहद कम थी इसलिए उन्हें अपने दुकानों पर रखना दुश्कर कार्य था। सबसे ज्यादा मुश्किल दुकान के लिए 100 फर्लांग की जगह की व्यवस्था करना था क्योंकि हाट के आसपास कई दुकानें और भवन बन चुके थे इसलिए वहाँ जगह की खासी किल्लत हो गयी थी। जहाँ जमीन थे वो मँहगी थी कि दुकानों के लिए खरीदना संभव नहीं था। अनेक दुकानें बंद हो गईं। जो बचे, मजबूरन उन्हें व्यंजनों की कीमत कई गुना ज्यादा बढ़ानी पड़ी। व्यंजनों की कीमत बढ़ जाने के कारण व्यंजन के शौक़ीन वहाँ आते तो रहे लेकिन उनकी ईच्छा थी कि कीमतें कम हों।
कुछ स्वयंसेवी लोगों ने अचानक व्यंजनों की कीमतों के कई गुना बढ़ने की शिकायत राजा के दरबारियों से करनी शुरू की। लगातार शिकायतें आने पर राजा ने आदेश पारित किया कि व्यंजनों की कीमतें पुरानी कीमतों के दहाई हिस्से से ज्यादा नहीं बढ़नी चाहिए। राजा के आदेश के कारण दुकानदारों को कीमतें कम करनी पड़ीं तो उन्होंने व्यंजन परोसने के बर्तनों, पानी, यहाँ तक कि चटनी इत्यादि के लिए अलग कीमतें वसूलनी शुरू कर दीं। स्वयंसेवियों ने इसके विरोध में अनशन और तेज कर दिया, जिससे लोगों में असंतोष फैलने लगा। राजा की ख्याति पर दुष्प्रभाव पड़ता देख व्यंजनों की निजी दुकानों को बंद करने का आदेश पारित कर दिया गया और जबरदस्ती उनपर ताले जड़ दिए गए। लेकिन सरकारी प्रतिष्ठान अब भी खाली थे क्योंकि लोगों का व्यंजन खाने से मोहभंग हो चुका था.. मंत्रियों, दरबारियों, स्वयंसेवियों यहाँ तक कि राजा को भी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों हुआ। क्या आपको पता है, कि ऐसा क्यों हुआ??
- समाप्त
अविनाश चंद्र, लेखक आजादी.मी के संपादक हैं
(Image credits: Art Renewal Center)
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