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R Jagannathan
Apr 08, 2016, 03:50 PM | Updated 03:50 PM IST
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हालांकि हम भारतीय देश के अंदर व पड़ोस में बढ़ते जिहादी आतंकवाद से परेशान रहते हैं क्योंकि पाकिस्तान और बांग्लादेश लगातार इनकी जमात में इजाफा कर रहे हैं, फिर भी वास्तविकता इससे कुछ भिन्न है | 17 करोड़ की मुस्लिम आबादी होने के बावजूद और पश्चिम एशिया, अफ्रीका और यूरोप से निकलते इस्लामिक कट्टरपंथ के बाद भी, शायद सब से कम जिहादी भारत से पनपते हैं |
हमारी तुलना में यूरोप अब इस्लामी आतंकवाद का नया परिकेंद्र बन गया है | बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में 22 मार्च को हुए आतंकवादी हमले के परिप्रेक्ष्य में उसकी स्थिति चैंकाने वाली है |
बेल्जियम जिसकी कुल जनसंख्या 1 करोड़ 10 लाख है, जो कि मुंबई और दिल्ली की जनसंख्या से भी कम है, वहां प्रति दस लाख जनसंख्या पर 40 जेहादी बनते हैं। आईसीएसआर यानी कट्टरता और राजनैतिक हिंसा के अध्ययन के लिए बने अंतरराष्ट्रीय केंद्र द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार ये जिहादी लड़ाके पश्चिमी एशिया के दो मुख्य युद्धों में भी शामिल रहे हैं।
‘द गार्डियन’ अखबार में छपी एक खबर के मुताबिक बेल्जियम के 250 से ज़्यादा लोग देश छोड़कर सीरिया और इराक में जेहादियों की लड़ाइयों में शामिल हो गए। इनमें से 75 की युद्ध में मृत्यु हो गई और 125 वापस आ गए।
आईसीएसआर के आंकड़े दर्शाते हैं कि शांतिपूर्ण कहे जाने वाले डेनमार्क और स्वीडन में भी प्रति व्यक्ति की दर से इस्लामी लड़ाकों की गणना का प्रतिशत कहीं अधिक है। वहाँ से हर दस लाख की जनसंख्या पर औसतन 27 और 19 लड़ाके निकलते हैं। फ्रांस में यह संख्या 18, आस्ट्रिया में 17 और हॉलैण्ड में 14.5 है।
इन सबकी तुलना में पाकिस्तान जिसे सामान्य तौर पर वैश्विक जिहादवाद की जड़ माना जाता है वहाँ प्रति दस लाख तीन से भी कम लड़ाके बाहर निकलते हैं। वैश्विक जेहाद के मानचित्र पर भारत कहीं है ही नहीं ।
क्या यहाँ हम किसी चीज़़ को नजरअंदाज कर रहे हैं? आखिर क्यों भारत से इतने कम जेहादी निकलते हैं जबकि भारत में मुस्लिम आबादी 17 करोड़ 20 लाख है जो कि पड़ोसी पाकिस्तान की मुस्लिम आबादी (18 करोड़ 20 लाख) के लगभग बराबर है ? यहां तक कि इस मामले में पाकिस्तान भी यूरोप के जेहादवाद की तुलना में काफी पीछे है।
वैसे ही, सऊदी अरब जो कि वैचारिक धरातल पर क्रूरता के मामले में इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक और सीरिया (आईएसआईएस) के समकक्ष है वहाँ से थोक के भाव जेहादी निकलते हैं जिनमें कुख्यात ओसामा बिन लादेन प्रमुख हैं। जनवरी 2015 में जारी आईसीएसआर की रिपोर्ट के अनुसार सऊदी अरब से 15 सौ से 25 सौ लड़ाके इराक और सीरिया की अलग अलग जेहादी लडाइयों में शामिल रहे हैं।
इस पहेली का हल राष्ट्रीय संस्कृति में समाहित है। अगर यूरोप और पश्चिमी एशिया, दोनों में दो प्रमुख धर्मों (ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म) के अनुयाइयों में प्रति व्यक्ति की दर से बड़ी संख्या में जेहादी तैयार हो रहे हैं तो हमें उनमें समानता देखनी चाहिए ना कि भिन्नता। साथ ही हमें ये भी देखना होगा कि भारतीय उपमहाद्वीप पश्चिमी एशिया और यूरोप से भिन्न क्यों है?
इन सवालों का जवाब इब्राहमिक धर्मों और भारतीय धर्मों विशेषतः हिंदु धर्म के सांस्कृतिक अंतरों में निहीत है। धर्मनिरपेक्षतावादी ‘ह’ शब्द का उल्लेख किसी भी अच्छे संदर्भ में करना पसंद नहीं करते। लेकिन यह ‘ह’ एक महत्वपूर्ण हिस्सा है इस अंतर की व्याख्या का कि क्यों भारत में यूरोप और दूसरे देशों के मुकाबले कम जेहादी तैयार होते हैं |
सामान्य तौर पर हिंदु दृष्टिकोण जियो और जीने दो की बात करता है, जो कि आधारभूत रूप से व्यापक दृष्टिकोण भी है। जिसे शांतिवाद, सहनशीलता और मध्यमार्ग की खुराक से सींचा गया है न कि विरोध और विवाद की प्रवृत्ति से। किसी प्रतिरोधी का सामना करते समय हिंदु लड़ना कम पसंद करता है, वह या तो हमारे साथ रहो या हमारे विरुद्ध के द्विअंगी तरीके में विश्वास नहीं रखता है। अगर उसे कुछ करने के लिए बाध्य किया जाए तो वह लड़ते समय क्रमशः निष्क्रीय आक्रामकता, औपचारिक स्वीकृति और आंतरिक प्रतिरोध की नीति का चयन करता है ।
एक औसत हिंदु अपने जीवन और प्राथमिकताओं को सर्वोपरि रखने के उद्देश्य से किसी भी कीमत पर हर तरह के विवाद को नज़रअंदाज करने की कोशिश करेगा। हिंदुओं ने यदा कदा जब भी लड़ाइयाँ की हैं यही दृष्टिकोण प्रतिबिंबित हुआ है। हमने विवादों से बचने के लिए कई तरह के समझौते किऐ हैं।
इससे अलग इब्राहिमवादी धर्म अपने विरोधियों के समक्ष द्विअंगी तरीकेा यानी ‘या तो हमारे साथ रहो या हमारे विरुद्ध रहो’ में विश्वास रखता है। मध्य मार्ग या समझौते का रास्ता चुनने के मौके वहाँ कम होते हैं। पश्चिम एशिया में उपजा ’एक ईश्वर एक सत्य’ का विचार इस्लाम व इसाई धर्म के अनुयाइयों को अपने विचारों के लिए लड़ने हेतु तैयार करता है। इन धर्मों के अनुयायी हिंदु धर्मों के अनुयाइयों की तुलना में अपने धर्म की ख़ातिर मरने के लिए ज़्यादा प्रस्तुत रहते हैं।
यूरोप में ईसाई धर्म के लोग खुद को इस्लाम धर्म के साथ प्राणघातक युद्ध में पाते हैं इसीलिए इस बात में कोई आश्चर्य नहीं कि जेहादी विचार ईसाई से मुसलमान बने लोगों में आसानी से बिकते हैं या फिर अफ्रीका से विस्थापित मुसलमानों में जो ब्रसेल्स के मोलेनबीक मोहल्ले में रहते हैं जिसे कि यूरोपी जेहादियों के लिए चूहों का बिल कहा जाता है, जिसकी एक प्रमुख उपज है पेरिस हमलों का संदिग्ध मास्टरमाइंड अबदेलहमीद अबाउद।
पोलिटिको में छपे एक लेख के अनुसार अबाउद, मोलेनबीक के बदनाम महल का अकेला बांशिदा नहीं है। अबाउद, अबेदसलाम भाइयों में से एक, सलाह के साथ 2010 में जेल में था। एक अन्य भाइ इब्राहिम ने पेरिस में खुद को उड़ा दिया था। मोरक्को के राष्ट्रीय निवासी अयूब अल खज्जानी ने साल 2015 अगस्त में तेज गति से चलने वाली ट्रेन में क्लाशिनकोव से हमला किया था। अयूब भी मोलेनबीक में रहता था। जनवरी 2015 में शार्ली एब्दो पर जो हमला हुआ था उसके लिए अमेडी काउलीबेली ने मोलेनबीक के हथियार विक्रेता से हथियार खरीदे थे और फ्रेंच-अलजीरियन मेंहदी नेमूचे, जिसने पिछले साल ब्रसेल्स में चार यहूदियों को मार गिराया उसने भी मोलेनबीक में ही समय बिताया था। बेल्जियम की पुलिस ने जिन दो संदिग्ध आतंकियों को मार गिराया था वे भी मोलेनबीक के ही थे।
अगर बेल्जियम, यूरोपियन जेहाद का सबसे बडा हेडक्वार्टर है तो दूसरे यूरोपियन देशों में प्रति व्यक्ति मुस्लिम लड़ाकों की दर दर्शाती है कि यूरोप का ईसाई धर्म तथा अफ्रीका, पश्चिमी एशिया के इस्लाम धर्म के बीच बहुत लंबे समय से एक दूसरे के प्रति मौजूद कुंठाओं की उर्जा अब अभूतपूर्व टकराव का रूप ले रही है।
इससे अलहदा, 1947 के द्वंद्व के बावजूद और हजारों सालों के साथ के कारण भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों (जिसमें कि पाकिस्तान के कट्टर भारत-विरोधी जेहादी इलाके भी शामिल हैं) के डीएनए में हिंदू शांतिवाद एकीकृत हो गया है। यह हिंदु डीएनए ही है जो भारतीय मुसलमानों को जेहादी वायरस की आसान गिरफ्त में आने से रोकता है।
यह वायरस यकीनन, पाकिस्तान के वहाबी इस्लाम के आलिंगन और सऊदी अरब की ओर से पाकिस्तानी, भारतीय, बांग्लादेशी मदरसों और मस्जिदों में आने वाले अत्यधिक फंड के कारण आ रहा है। भारतीय मुसलमानों में मौजूद शांतिवादी डीएनए ने जिहादी इस्लाम की पुकार को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया होता, यदि सऊदी तेल सम्पत्ति ने भारत में माहौल ना बिगाड़ा होता ।
यूरोप में अब्राहमिक यानी हम बनाम वे का डीएनए है इसलिए वे हम जितने भाग्यशाली नहीं हैं।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोपियन शैली के शांतिवाद ने समन्वयता को बढ़ावा नहीं दिया। जिसके फलस्वरूप यूरोप में राजनैतिक आडम्बर को बढ़ावा मिला और समाज में मुसलमानों के समन्वय की समस्याओं को नजरअंदाज किया गया। जर्मनी में लाखों तुर्क हैं जिनकी पहचान तुर्की ज़्यादा है और जर्मन कम। यहूदियों के साथ जर्मनी में यह मामला कभी नहीं रहा। फ्रांस और बेल्जियम में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की पहचान फ्रेंच या बेल्जियन के बजाय अफ्रीकी के रूप में अधिक है।
यूरोप में ईसाई धर्म और इस्लाम तेल और पानी की तरह हैं जो आपस में घुलमिल नहीं सकते। ब्रसेल्स के मोलेनबीक में जेहादी अंकुर इसलिए पनपे क्योंकि राज्य वहाँ के समुदाय विशेष को खुद से समेकित रूप में जोड़ नहीं पाया और ना ही इन पर अपने नियम काननों को लागू करने की चेष्टा की।
इब्राहिमवादी यूरोप को भारतीय सभ्यता के समन्यवाद से कुछ सीखने की जरूरत है।
Jagannathan is Editorial Director, Swarajya. He tweets at @TheJaggi.